Thursday, August 26, 2010

चाहिए, बस चाहिए

चाहिए, बस चाहिए

क्या चाहिए इन्हें
नाम - शोहरत
धन - दौलत
मिल जाये तो?
फिर और चाहिए, और, और...
न मिले तो,
कैसे भी चाहिए...

पर इस चाह के पीछे
कौन सी चाह है,
इसे तो समझा ही नहीं

चाह के पीछे थी
तलाश ख़ुशी की
तलाश आनंद और मस्ती की
तलाश उस अद्भुत प्रेम की
पर मिला क्या?
पहुचे कहाँ?
जहाँ न सुख बचा, न आनंद और न प्रेम...

बटोरने कि होड़ ने
सारे संबंधों से दूर कर दिया

अजीब अकेलेपन से घिरे हैं सब आज
गलती हुई?
पर कहाँ ?
आज भी समझ कहाँ पा रहा
क्यूंकि अब भी दोष
दूसरों में ही दूंढ रहा

वाह रे इन्सान वाह
खुद को शैतान बना
अब शैतान को ही दोष दे रहा...

Sunday, August 15, 2010

जीवन में practical होना पड़ता है

यह कोई भारत कि ही बात नहीं है
चारोँ तरफ,
हर देश कि यही कहानी हो कर रह गयी है I
और इसका कारण है सामाजिक मूल्यों में गिरावट I
और गिरावट के कई कारणों में एक है,
हमारा रातों रात सब पा लेने का दुस्वप्न I

देश खुद से थोड़े ही महान होता है,
किसी भी देश कि महानता उसके देशवासियों से होती है I
पर आज जिस होड़ में, जिस व्याकुलता में इन्सान ने खुद को डाल लिया है,
फिर तो ऐसा होना ही था न ?

कुछ वर्ष पहले तक
हर देश में उसके हीरो थे,
जो त्याग और कर्तव्यपरायणता के प्रतीक थे I
पर आज का हीरो कौन है?
जिसने जैसे भी हो
पैसा, पद, नाम, शोहरत पा लिया है I
सब जानते हैं उसने कैसे अर्जित किया है
पर कहता कोई नहीं
या कहें कहना नहीं चाहता
क्यूंकि कहीं न कहीं उसके दिल में भी
ऐन प्रकरेण सब पा लेने कि चाह सुलग रही है
आज बिरले ही कोई ऐसा दिखता है जो
मूल्यों को जीता है I
सब का नारा एक ही है
क्या करें
जीवन में practical होना पड़ता है I

On Sun, Aug 15, 2010 at 9:26 AM, rashmi prabha wrote:

http://wwww.newobserverpost.tk/

Sunday, August 8, 2010

एहसास ...

'ओहो,
इतना करने की क्या जरुरत थी,
आप भी न अंकल,
अच्छा तो नहीं न लगता माँ'.

मैं चुप,
क्या कहूँ,
की तुम्हारे मासूम चेहरों में मुझे
अपना बचपन दिखता है,
तुम्हारे प्यारे,
'अंकल अब जल्दी जल्दी आयेंगे न'
मुझे रात भर सोने नहीं देते.

ऐसे ही तो थे हम
नादान
नासमझ
सब अपने हैं
मान कर चलनेवाले
बिलकुल वैसे ही तो हैं ये सारे.

मेरा बस चले तो सारी दुनिया खरीद दूँ ,
मेरा बस चले तो पहरा लगा दूँ
जिससे कोई गरेरिया कभी फांस न पाए.

मांगता हूँ थोड़ा भ्रम इनके लिए
मांगता हूँ इनका विश्वास कभी न छूटे.

क्यूंकि
सचाई से अक्सर भ्रम टूटते हैं
रिश्तों में खींचातानी बढ़ते हैं
मेरा तेरा, ऐसा वैसा.
फिर रिश्तों में
रह ही क्या जाता है !

रह जाता है बस
एक अकेलापन
एक अंधी गली
और रौशनी की उम्मीद में ही जीवन निकल जाता है...

पूछते हो क्या पाया इनसे,
इनसे पाया मैंने,
अपना वो विश्वास फिर से
अपना वो भ्रम फिर से
अपनी वो बेखोफ हंसी फिर से
इनमें देखता हूँ वो सात रंग फिर से
जो कभी हमारे भी सपने थे.

आज,
इनसे मिलकर,
अपने जिन्दा
होने का एहसास
एक बार फिर हुआ है.